“तलाक़ दे तो रहे हो इताब-ओ-क़हर के साथ ,
मिरा शबाब भी लौटा दो मेरी महर के साथ..!”
(साजिद सजनी भोपाली)
औरतों के लिए तुम्हारा चलन निराला क्यों है,
जो कहते हो कि धर्म साफ है तो ये नियम काला क्यों है,
शिकायत मस्जिदों से नहीं, पर फतवों से है मुझे,
तुमने औरतों को अपने धर्म से निकाला क्यों है
“निकाह कर तो रही हो ग़रीबे शहर के साथ,
मिज़ाज अपना बता देना तुम महर के साथ।
”दहेज़ दे रहे तो दे दो थोड़े ज़हर साथ,
जला दी न जाऊं कहीं बस कुछ पहर के बाद
तलाक तो दे रहे हो नजर-ए- कहर के साथ,. जवानी भी मेरी लौटा दो मेहर के साथ…
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