Thursday 7 June 2018

सब ताज उछाले जाएंगे सब तख़्त गिराए जाएंगे

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उर्दू के लोकप्रिय एवं प्रमुख शायरों में गिने जाते हैं. इनका जन्म 3 फरवरी, 1911 को पंजाब के जिला सियालकोट (पकिस्तान में) में हुआ था. फ़ैज़ साहब ने हुस्नो-इश्क को अपनी शेरो-शायरी में तो बखूबी उतारा, साथ-ही-साथ समाज एवं राष्ट्र के कई ज्वलंत मुद्दो पर भी बेबाकी से लिखा. फ़ैज़ साहब मॉर्कसवादी विचारधारा के प्रखर समर्थक थे. 1951 में फ़ैज़ साहब को सज्जाद जहीर और कुछ फौजी अफसरों के साथ रावलपिंडी साजिश केस में लियाकत अली खां की हकूमत का तख्ता पलटने के संबंध में गिरफ्तार कर लिया गया. इस केस में फ़ैज़ साहब को चार साल एक महीना ग्यारह दिन जेल में रहना पड़ा और इसमे से लगभग तीन महीने तो कैदे-तन्हाई मे भी उन्होने बीताई. कैदे-तन्हाई के दौरान उनका बाहरी दुनिया से संपर्क पूरी तरह कट गया, यहाँ तक़ की उन्हें अपने क़लम का भी इस्तेमाल करने नहीं दिया जाता था. उन्होंने अपनी कई नज़्में अपने जेल निवास के दौरान चार साल में लिखी और जो काफी लोकप्रिय भी हुईं. फ़ैज़ साहब की मृत्यु 20 नवंबर, 1985 को दमे की बीमारी से हुई.
इस पोस्ट में एवं इसके बाद के कुछ पोस्टो में मै फ़ैज़ साहब की कुछ नज्में, शायरी, ग़ज़ल इत्यादि प्रस्तुत करूँगा.
सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाएंगे
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अज़ल मे लिक्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे .
दम महकूमों के पाओं तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काअबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंजर भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा ‘अनल हक़’ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो.
लाज़िम – जरूरी; लौह-ए-अज़ल – वह तख़्ती जिस पर पहले ही दिन सबकी किस्मत अंकित कर दी गई; कोह-ए-गरां – भारी पहाड़; महकूमों – शोषितों; अहल-ए-हिकम – सत्तारूढ़; अर्ज़-ए-ख़ुदा – ख़ुदा की धरती; अहल-ए-सफ़ा – पवित्र लोग; मरदूद-ए-हरम – जिनकी कट्टरपंथियों ने निन्दा की; मंजर – दृश्य ; नाज़िर – दर्शक; अनल हक़ – ‘मै सत्य हूँ’ – प्रसिद्ध सूफी संत मंसूर की उक्ति, जिसे उसकी इस घोषणा के कारण ही फाँसी पर लटकाया गया था; ख़ल्क-ए-ख़ुदा – प्रजा जन

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