Saturday 29 June 2019

‘कैसे बेशर्म आशिक हैं ये आज के, इनको अपना बनाना गजब हो गया.’

‘कैसे बेशर्म आशिक हैं ये आज के, इनको अपना बनाना गजब हो गया.’


ये कव्वाली पुरानी है. इमरजेंसी लगने से पहले की कव्वाली. 1972 में एक फिल्म आई थी पुतलीबाई. उस में भी थी ये कव्वाली. लिखा था जफर गोरखपुरी ने. कव्वाली को गाया था राशिदा खातून और युसूफ आजाद ने.

‘जग में मौला ने सोचा मर्द को पैदा करे
सबसे पहले ये सवाल आया के कुदरत क्या करे
पत्थरों से संगदिली
और बेरुखी तकदीर से
कहर तूफानों से मांगा और गजब समसीर से
तो ली गधे से अक्ल और कौए से सियानापन लिया
और कुछ कुत्ते की टेढ़ी दुम से टेढ़ापन लिया
घात ली बिल्ली से और चूहे से मांगा भागना
और उल्लू से लिया रातों को इसका जागना
ले लिया तोते से आंख फेर लेने का चलन
और दिया हिज़-ओ-हवस लालच का दीवानापन
तो जहर फैलाने की आदत इसको दे दी न अक्खी
दिल दियो इसको पत्थर का और फितरत आग की
ली गई गिरगिट से हरदम रंग बदलने की अदा
जिससे औरत तो देते रहा करे धोखा सदा
तो इसको नाफरमानियां बख्शी गईं शैतान की
झूठ बोले ताकि ये कसम भगवान की
बंदरों से छीना झपटी और उछल लंगूर से
अल गरज हर चीज ले ली, पास से और दूर से
लेके मिट्टी में मसाला, जब ये मिलवाया गया
फर्क उस दम फितरत की मर्द में ये पाया गया
कि मर्द के पुतलों में जिस्म और जान दौड़ाई गई
तो उसमें औरत की अदा भी थोड़ी सी पाई गई
औरतों में मर्द की सूरत नहीं मिलती जनाब
पर इन्ही मर्दों में मिलते हैं जनाने बेहिसाब
शक्ल मर्दों की और आदत जनाना के हो गए
क्या तो खुदा ने चाहा था और क्या न जाने हो गए
बन चुका जब मर्द तो, मौला ने मेरे ये कहा
कि अच्छा खासा बनाया था मैंने इसे
बन गए ये जनाना, गजब हो गया..’


यहां जो क़व्वाली ट्रांस्क़्रिप्ट की शक्ल में पेश कर रहा हूं वो इन जनाब ज़फ़र गोरखपुरी की लिखी हुई है.आप गोरखपुर की बांसगाव तह्सील के एक गांव में 1935 में पैदा हुए. कई फिल्मों के लिये गाने लिखने से अलग सुनते हैं कि उर्दू शायरी में आपको बडी इज़्ज़त हासिल है. एक ज़माने में बेहद लोकप्रिय रही इस क़व्वाली में उपमाओं का जो संसार है वह ध्यान खींचता है.हमारे लिये ज़फ़र साहब को जानना महज़ इस लिये भी ज़रूरी है कि वो हमारी भाषा और बयान को ख़ालिस हिंदुस्तानी रंग देते हैं.



यूसुफ़ आज़ाद और रशीदा ख़ातून क़व्वाल अपने दौर की नामी शख़्सीयतें हैं. इनकी आवाज़ें इस उपमहाद्वीप की विविधता भरी गायकी और ख़ास मैनरिज़्म की तरफ़ इशारा करती हैं. भूलने के इस दौर-दौरे में आइये इस तरह के साहित्य और गायकी को याद करें.



फ़िल्म पुतलीबाई(1972), निर्देशक-अशोक राय, संगीत-जय कुमार, फ़िल्म में सुजीत कुमार,हीरालाल और भगवान आदि थे.
रशीदा ख़ातून:
कैसे बेशर्म आशिक़ हैं ये आज के
इनको अपना बनाना ग़ज़ब हो गया
धीरे-धीरे कलाई लगे थामने
इनको उंगली थमाना ग़ज़ब हो गया

यूसुफ़ आज़ाद क़व्वाल:
जो घर में सिल पे मसाला तलक पीस सके
उन्हें ये नाज़ हमें ख़ाक में मिलायेंगे
कलाई देखो तो चूडी का बोझ सह सके
और उसपे दावा कि तलवार हम उठायेंगे
फ़रेब--मग़्र में इनका नहीं कोई सानी
ये जिन को डंस लें वो मांगे उम्र भर पानी
बडा अजीब है दस्तूर इनकी महफ़िल का
बुलाया जाता है इज़्ज़त बढाई जाती है
फिर उसके बाद वहीं क़त्ल करके आशिक़ को
बडी ही धूम से मैय्यत उठाई जाती है
ख़ता हमारी है जो हमने उनसे प्यार किया
बुरा किया जो हसीनों पे ऐतबार किया

भूल हमसे हुई इनके आशिक़ बने
पास इनको बुलाना ग़ज़ब हो गया
ठोकरों में थे जब तक तो सीधे थे ये
इनको सर पे बिठाना ग़ज़ब हो गया

रशीदा ख़ातून:
हम औरतों को नज़र से उतारने वालो
ख़बर भी है ये शेख़ी बघारने वालो
कि इस ज़मीन पे पुतली भी एक औरत है
कि जिसमें मर्द को ललकारने की हिम्मत है
पहन के सर पे दिलेरी का ताज बैठी है
जो घर में थी वो सिंहासन पे आज बैठी है
अगर झुके तो ये दिल क्या है जान भी दे दे
जो सर उठाये तो मर्दों की जान भी ले ले
अगरचे फूल का इक हार है यही औरत
जो ज़िद पे आये तो तलवार है यही औरत
ये पुतली बनके ज़माने को मोड सकती है
उठे तो मर्द का पंजा मरोड सकती है

तेरी हिम्मत पे पुतली हमें नाज़ है
तेरा मैदां में आना ग़ज़ब हो गया

यूसुफ़ आज़ाद क़व्वाल:
एक दिन बोले फ़रिश्ते करके ये दुनिया की सैर
या खुदा दुनिया तेरी सूनी है औरत के बग़ैर
उठ पडे हिकमत दिखाने के लिये क़ुदरत के हाथ
सोच ली मौला ने औरत को जनम देने की बात
इस तरह मालिक ने की कारीगरी की इब्तिदा
चांद से मांगा उजाला नूर सूरज से लिया
रूप सैयारों से मांगा रूप ऊषा से लिया
पंखडी से ली नज़ाकत और कलियों से अदा
शाम से काजल लिया और सुबह से ग़ाज़ा लिया
बिजलियों से क़हर मांगा आग से ग़ुस्सा लिया
हौसला चट्टान से और दर्द पंछी से लिया
आसमां से ज़ुल्म मांगा सब्र धरती से लिया
शाख़ से अंगडाइयां झरनों से इठलाना लिया
बुलबुले से नाज़ुकी नद्दी से बल खाना लिया
आईनें से हैरतें तस्वीर से ख़ामोशियां
लहर से अठख़ेलियां मांगीं पवन से शोख़ियां
आंख ली हरनी से और शबनम से आंसू ले लिया
बदलियों से ज़ुल्फ़ नज़्ज़ारों से जादू ले लिया
लाजवंती से शरम और रातरानी से हया
आबरू मोती से ली सूरजमुखी से ली वफ़ा
ज़हर नागिन से लिया और सांप से डसना लिया
काटना बिच्छू से मांगा तीर से चुभना लिया
लोमडी से मांग लीं ताउम्र की मक्कारियां
मक्खियों से शोर और मच्छर से लीं अय्यारियां

इतनी चीज़ें जमा होकर जब् लगीं मौला के हाथ
और इन सब को मिलाया जब ख़ुदा ने एक साथ
तब कहीं जाकर बडी मेहनत से इक मूरत बनी
बिलनशीं पैकर बला इक दिलरुबा सूरत बनी
देखकर अपनी कलाकारी को मौला हंस पडा
और उसी अनमोल शै का नाम औरत रख दिया
रख चुका जब नाम उसके बाद ये कहने लगा.. क्या?
मैं बना कर तुझे ख़ुद परेशान हूं
तुझको दुनिया में लाना ग़ज़ब हो गया

रशीदा ख़ातून:
जब मेरे मौला ने सोचा मर्द को पैदा करे
सबसे पहले ये सवाल आया कि क़ुदरत क्या करे
पत्थरों से संगदिली और बेरुख़ी तक़दीर से
क़हर तूफ़ानों से मांगा और ग़ज़ब शम्शीर से
ली गधे से अक़्ल कौवे से सवानापन लिया
और कुछ कुत्ते की टेढी दुम से टेढापन लिया
घात ली बिल्ली से और चूहे से मांगा भागना
और उल्लू से लिया रातों को इसका जागना
ले लिया तोते से आंखें फेर लेने का चलन
भेडिये से ख़ून पीने का लिया दीवानापन
ली गयी गिरगिट से हरदम रंग बदलने की अदा
जिससे औरत को दिया करता रहे धोका सदा
इसको नाफ़रमानियां बख़्शी गयीं शैतान की
झूट बोले ताकि ये खाकर क़सम भगवान की
लेके मिट्टी मे मसाला जब ये मिलवाया गया
फ़र्क़ उस दम मर्द की फ़ितरत में ये पाया गया
मर्द के पुतलों में जिस दम जान दौडाई गई
उसमें औरत की भी थोडी सी अदा पाई गयी
औरतों में मर्द की सूरत नहीं मिलती जनाब
पर इन्हीं मर्दों में मिलते हैं जनाने बेहिसाब

शक्ल मर्दों की तो आदत के ज़नाने हो गये
क्या ख़ुदा ने चाहा था और क्या जाने हो गये
बन चुका जब मर्द तो मौला ने मेरे ये कहा.. क्या?
कि अच्छा-ख़ासा बनाया था मैने इसे
बन गया ये ज़नाना ग़ज़ब हो गया

यू..-वाह रे पुतलीबाई क्या दिलेरी दिखाई
.ख़ा.-तेरी हिम्मत के सदक़े तेरी जुर्रत के सदक़े
यू..-अपनी शोहरत का झंडा तूने दुनिया मॆं गाडा
.ख़ा.-अच्छे-अच्छों को तूने एक पल में पछाडा
यू..-तू बहादुर तू निडर अक़्ल और होश तुझमें
.ख़ा.-जिस्म औरत का लेकिन मर्द का जोश तुझमें
यू..-जिसको समझे ना कोई वो उलटफेर है तू
.ख़ा.-तेरी हिम्मत की क़सम वाक़ई शेर है तू
यू..-नारी होकर भी तूने वाह क्या गुल खिलाया
.ख़ा.-जो ना मर्दों से हुआ तूने वो कर दिखाया
यू..-तेरे ऊंचे इरादे तेरा हर काम ऊंचा
.ख़ा.-तूने औरत का जग मॆं कर दिया नाम ऊंचा
तूने जो कुछ भी मुंह से कहा कर दिया
यू./.ख़ा.-तूने जो कुछ भी मुंह से कहा कर दिया
तेरा कर के दिखाना ग़ज़ब हो गया.

Friday 21 June 2019

“तलाक़ दे तो रहे हो इताब-ओ-क़हर के साथ , मिरा शबाब भी लौटा दो मेरी महर के साथ..!” (साजिद सजनी भोपाली) @Rekhta


“तलाक़ दे तो रहे हो इताब-ओ-क़हर के साथ , मिरा शबाब भी लौटा दो मेरी महर के साथ..!” (साजिद सजनी भोपाली)

औरतों के लिए तुम्हारा चलन निराला क्यों है, जो कहते हो कि धर्म साफ है तो ये नियम काला क्यों है, शिकायत मस्जिदों से नहीं, पर फतवों से है मुझे, तुमने औरतों को अपने धर्म से निकाला क्यों है

“निकाह कर तो रही हो ग़रीबे शहर के साथ, मिज़ाज अपना बता देना तुम महर के साथ।

दहेज़ दे रहे तो दे दो थोड़े ज़हर साथ,
जला दी न जाऊं कहीं बस कुछ पहर के बाद


तलाक तो दे रहे हो नजर--कहर के साथ,. जवानी भी मेरी लौटा दो मेहर के साथ