Friday 19 October 2018

"ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)" फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
आईए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
लाओ, सुलगाओ कोई जोश-ए-ग़ज़ब का अंगार
तैश की आतिश-ए-ज़र्रार कहाँ है लाओ
वो दहकता हुआ गुलज़ार कहाँ है लाओ
जिस में गर्मी भी है, हरकत भी, तवानाई भी
हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
मुन्तज़िर होगा अंधेरों के फ़ासिलों के उधर
उनको शोलों के रजाज़ अपना पता तो देंगे
ख़ैर हम तक वो न पहुंचे भी सदा तो देंगे
दूर कितनी है अभी सुबह बता तो देंगे
(क़ैद में अकेलेपन में लिखी हुई)
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन
के जहाँ चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले
गर कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
चंद रोज़ और मेरी जाँ, फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर है हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास हैं, माज़ूर हैं हम
आज बाज़ार में पा-बेजौला चलो
दस्त अफशां चलों, मस्त-ओ-रक़सां चलो
ख़ाक़-बर-सर चलो, खूँ ब दामां चलो
राह तकता है सब, शहर ए जानां चलो
बोल कि होठ स्वतंत्र हैं तेरे
बोल, जीभ अब तक तेरी है
तेरा कसा हुआ शरीर है तेरा
बोल कि प्राण अब तक तेरे है
आईए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें पूजा करने का तरीक़ा याद नहीं
हम जिन्हें प्रेम की भावनाओं (जज़बात) के सिवा
कोई बुत कोई भगवान याद नहीं
लाओ, सुलगाओ कोई ग़ज़ब के उत्साह की ज्वाला
दीवानेपन की आग लाओ
दहकता हुआ गुलज़ार (फूलों से भरपूर) लाओ
जिस में गर्मी भी है, चलन भी, ऊर्जा भी
अवश्य अपने जैसे लोगों का कोई गुट
इस अन्धकार में दूरी पर मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा
मेरी जलाई ज्वाला के शोले बेकार नहीं - वे उन्हें मेरी मौजूदगी के बारे में बताएँगे
वो मुझे बचाने मुझ तक न भी पहुँच पाए, तो मुझे पुकारेंगे ज़रूर
इस रात की प्रभात कितनी देर में होनी है, मुझे ख़बर दे देंगे
(क़ैद में अकेलेपन में लिखी हुई)
न्यौछावर हूँ मैं तेरी गलियों पर ऐ राष्ट्र
कि जहाँ चली है प्रथा के कोई न सिर उठा के चले
अगर कोई चाहने वाला सैर को निकले
नज़र चुरा के चले, तन और प्राण बचा के चले
कुछ दिन और मेरी प्रिय, केवल कुछ ही दिवस
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर है हम
और कुछ देर अत्याचार सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने पूर्वजों की देन (करनी का नतीजा) हैं, हम निर्दोष हैं
आज बाज़ार में ज़ंजीरों में जकड़े पाँव के साथ चलो
हाथ हिलाते हुए चलो, मस्त हुए नाचते हुए चलो
धूल से भरा हुआ सिर लेकर चलो, ख़ून से लथपथ दामन लेकर चलो
रास्ता देख रहा है वो, प्रियतमा के शहर चलो

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